कई दिनों पहले मैंने एक कविता लिखी थी शीर्षक था 'तब-अब' ,मुझे हमेशा से अपनी इस रचना के बारे मैं लगता है की ये हमेशा ताज़ी बनी रहती है ,शायद हर आदमी इन अब और तब से ज़रूर गुज़रता होगा । खैर, रचना पसंद आए तो बताना , एक ब्लॉगर साथी के कहने से पर कमेंट्स से word verification भी हटा लिया है ।
ये दौर जिंदगी का ना जाने क्यूँ बदलता है ,
मेरा दिल भी बस मुफलिसी मैं ही मचलता है ।

उस ज़माने मैं हमने लाख तारे तोडे हैं ,
अब इस ज़माने ने हमे तोड़ रखा है ।

वो क्या आदयें थीं अपनी इतराने की ,
अब अपनी आदाओं को हमने ही भुला रखा है ।

पूरी करी थीं ना जाने कितनो की मुरादें ,
अब अपनी ही मुरादों को तकिए से दबा रखा है ।

मुझसे गलती जो हुई तो माफ़ मुझको सब ने किया ,
अब मेरी गलतियों को ही अपना मंसूबा बना रखा है ।

जो मेरे दिल को बेच दिया था मैंने पैसों मैं ,
अब मेरे दिल को ही मैंने पैसों सा बना रखा है ।

जो हर रह गुज़रती थी मेरे घर से होकर ,
अब मेरा घर ही मैंने किनारे पर बिठा रखा है ।

की मुझे आज भी कोई उस दौर से याद करता है ,
मेरा ये दिल भी बस मुफलिसी मैं ही मचलता है ।

5 टिप्पणी

  1. पूरी करी थीं ना जाने कितनो की मुरादें ,
    अब अपनी ही मुरादों को तकिए से दबा रखा है ।

    अच्छा लिखा है जी

    Posted on June 26, 2008 at 6:06 PM

     
  2. पूरी करी थीं ना जाने कितनो की मुरादें ,
    अब अपनी ही मुरादों को तकिए से दबा रखा है ।
    bhut sundar.likhate rhe.

    Posted on June 26, 2008 at 6:08 PM

     
  3. बहुत बढ़िया-जारी रहिये.

    Posted on June 26, 2008 at 8:42 PM

     
  4. की मुझे आज भी कोई उस दौर से याद करता है ,
    मेरा ये दिल भी बस मुफलिसी मैं ही मचलता है ।
    vah bahut badhiya.

    Posted on June 27, 2008 at 1:25 PM

     
  5. पूरी करी थीं ना जाने कितनो की मुरादें ,
    अब अपनी ही मुरादों को तकिए से दबा रखा है ।
    kya bat hai...bahut khoob.

    Posted on June 28, 2008 at 9:27 PM