ना जाने कहाँ खो गई

द्वारा मयूर On 12:35 AM



आज हम इतने आगे बाद गए हैं की पीछे छुते अपने ही पैरों के निशानों को पहचाना शायद अमर लिए मुश्किल होता जा रहा है । हरिवंश राय बच्चन मधुशाला मैं एक जगह कहते हैं , 'बुलबुल तरु की फुनगी पर से संदेश सुनती यौवन का ', हम तो भूल ही गए है की बुलबुल की आवाज़ मैं मिठास भी होती है , पानी मैं गहराई तक और ११.१ % महंगाई तक तो हम पहुँच गए है पर एक भाई का अपनी भौजाई तक से रिश्ता दूर खोता जा रहा है । गाडरवारा से आए एक कवि श्री भारत भूषण जी की एक रचना यहाँ प्रस्तुत है परिचय मैं पहले ही करा चुका हूँ ।
ना जाने कहाँ गया ,
निश्छलता का भावः ,
अपने पन की गहराई ,
हर्षित होती आंखें
देख घटाएं सावन की
शिखर छुते पेड़
देख अभिमान से भर
भर उठते ह्रदय
की अन्तः खुशी
निर्जीवता को भी
अपनत्व का मधु
घोलकर
समाहित कर देती थी
संजीवता के
आभास मैं
अनजान के लिए
आंखों से आंसुओ
का दान
दर्द को दर्द की पहचान
ना जाने कहाँ खो गई ???
फिर मिलेंगे !

3 टिप्पणी

  1. श्री भारत भूषण जी की कविता पढ़वाने का आभार. बहुत बढ़िया है.

    Posted on June 30, 2008 at 3:27 AM

     
  2. sundar prastuti> aabhaar>

    Posted on June 30, 2008 at 8:13 AM

     
  3. parikshit Said,

    sabse pahle to apko dhanyevad ke is nakkarkhane mai apne is vichar ko janam diya ............. ab mai kahana chahunga ki bhushan ji humne jabse dunia ko smagha bus ek hi nishkarsh nikala ki hamare hath mai sirf prayas hai hum sirf prayas kar sakte hai or aapka prayas sarahniy hai

    Posted on June 30, 2008 at 11:33 AM